ऋग्वेदकालीन समाजव्यवस्था – एक विहङ्गावलोकन
Keywords:
वेद, समाज, ऋग्वेद, वर्ण, आश्रमAbstract
’विद्’ धातु से वेद शब्द निष्पन्न होता है । वेदों में समाज का महत्त्वपूर्ण स्वरूप प्राप्त होता है । व्यक्ति से समाज का निर्माण होता है । किसी भी समाज को उसके धर्म एवं संस्कृति से पहचाना जाता है । विश्व अनेक संस्कृतियों में से भारतीय संस्कृति अभी भी जीवित है, जिसका मुख्य कारण वैदिक संस्कृति है । मिस्र,रोम, यूनान की संस्कृतियाँ नष्ट हो चुकी हैं अथवा उसका मूल स्वरूप भ्रष्ट हो गया है, परन्तु भारतीय संस्कृति एवं समाज अभी तक यथावत है, जिसका मूल कारण वेद है । मानव जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त समाज में ही रहता है । मानव-जीवन के दो पहलू है - वैयक्तिक एवं सामाजिक । समाज का अभ्युदय एवं सुख-शान्ति तब तक सम्भव नहीं है, जब तक उन दोनों पहलुओं में सामञ्जस्य न हो । ऋग्वेदकालीन समाज में दोनों पहलुओं में पूर्ण सामञ्जस्य स्थापित था । तत्कालीन समाज एक सुसंस्कृत समाज था और समाज में एकता का भाव जागृत हो चुका था । इसी क्रम में सर्वप्रथम वैदिक समाज का निरूपण करने का प्रयास किया जा रहा है ।
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References
१) ऋग्वेद संहिता, सायणाचार्यकृत-भाष्यसंवलिता, अनुवादक : पण्डित रामगोविन्द त्रिवेदी, प्रकाशक : चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी
२) ऋग्वेद भाष्य, अनुवादक : दयालमुनि आर्य, प्रकाशक : वानप्रस्थ साधक आश्रम, आर्यवन-रोजड
३) वैदिक ज्ञान विज्ञान कोश, संपादक : डो. मनोदत्त पाठक, प्रकाशक : राअपाल एण्ड सन्स, दिल्ली
४) वैदिक साहित्य का इतिहास, प्रो.पारसनाथ द्विवेदी, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी
५) वैदिक साहित्य अने संस्कृति, डो गौतम पटेल, युनिवर्सिटी ग्रन्थनिर्माण बोर्ड, अमदावाद